मैं रात का पहरेदार

रात आँगन में हम थे, आसमानी बत्तियां

और बीच मे चकोर।
यूँ तो सन्नाटा भी हाज़िर था चद्दर ओढे।
पिटारे से अपने हमने चन्द अल्फाज़ निकाले।
सन्नाटा हमारी खाँसने से गैर महिफूज़ सा हुआ।
आसमानी बत्तियां कुछ और चमकी,
मानो वो अन्धेरी यादों की गलियों मे,
मन्द सी रौशनी करना चाह रही हों।
सारी रात आँगन मे हमने,
पिटारा-से अल्फाज़ निकाले,
और तमाम गलियां बीते सालों की,
आसमानी बत्तियों की लौ में तह कर आए।

सन्नाटे का भी कतल कर दिया,
आसमानी बत्तियाँ भी निगल गया, दिन।

ज़ोर से जो खींचा हमें मकान मालिक ने,
हमारी तो नींद भी पल्ला छुड़ा कर भाग निकली।
आँखें मसली तो सामने मालिक,
उसके सिर पर सूरज।
हमने नज़र को चारो ओर फेरा,
सब साथी भाग गए।
डाँट फटकार खूब सूनी,
सिर को उस सूरज के आगे,
छुकाये हम खड़े रहे।

हम कहाँ के पैहरेदार हुए? हमने सोचा,
न सन्नाटा बचा सके,
न आसमानी बत्तियाँ जिन्हे,
दिन खा गया।

मालिक की फटकार सुन ही रहे थे कि,
कानो तक सन्देशा आया,
हवा के हाथों साथियों ने ख़त भिजवाया।
सन्नाटा ने लिखा कि इस शोर को चीर देगा,
आसमानी बत्तियाँ और चकोर बोले,
दिन का क्या है?
यह भी ढल जाऐगा।

हमें साथियों की बगावत की मानो खुशबू आई।
ख़त ने मानो,
यूँ एहसास दिलवाया जैसे
कैदी को साथियो ने उसके,
सुरँग का नक्शा भिजवाया।

हमने सिर को ऊपर ऊठाया,
मालिक का गुलाम जो सर पर खड़ा था।
उस जेलर की ओर देख,
तन्स करना चाहा,
मालिक के जाते ही,
हम सूरज की ओर देख ज़ोर से बोले,

जेलर जनाब,
रात को महफिल फिर होगी,
सन्नाटा, आसमानी बत्तियाँ, चकोर
और मेरे पिटारे से निकले अल्फाज़,
आज फिर गलियों मे हम बीते वक्त की, तफरी करने जाँऐंगे,

हिम्मत हो तो रोक लेना।
तुम सौ बार कैद करना,
हम हज़ार मरतबा सुरंग खोद रिहा हो जाऐंगे।
हम ठहरे कैदी दिन के,
रात को आज़ाद हो जाऐंगे

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